रजत रानी मीनू की कहानी
रजत रानी
‘मीनू’ की कहानियाँ और जातिवाद का बदला स्वरुप
-- डॉ.
संजय रणखांबे
हिंदी दलित
कहानी का प्रारंभ आठवें दशक में हुआ । इन कहानियों के माध्यम से दलित कहानीकारों ने सवर्ण समाज द्वारा
दलितों पर होनेवाले अन्याय , अत्याचार , शोषण , जातिभेद, वर्णभेद तथा अपमानित
व्यवहार का पर्दाफाश किया है । दलित कहानी के सन्दर्भ में तथा
उसकी ओर देखने के मनुवादी रवैये को अभिव्यक्त करते
हुए रमणिका गुप्ता लिखती है– “अविश्वसनीय पर सच ! यही है दलित कहानी । अविश्वसनीय पीड़ा , जुल्म, अत्याचार और
अविश्वसनीय सहनशीलता , संवेदनशील मनुष्य के रोंगटे खड़े कर देनेवाली और विद्रोह के
लिए प्रेरक सच । काश, यह उस संवेदनहीन सवर्ण
मानसिकता को शर्मसार कर पाता । मनुष्य तो शर्मसार हुए पर
मनुवादी नाम के पशु रस ले लेकर हँसते रहे । फिर कहानियों ने- दलित कहानी ने सामाजिक आयाम के हर कोण को पकड़ा।”1 ओमप्रकाश वाल्मीकि ,
मोहनदास नैमिसराय , सूरजपाल चौहान , दयानंद बटोही , सत्यप्रकाश चंद्रमौलि , विपिन
बिहारी डॉ. कुसुम वियोगी , डॉ. शत्रुघ्नकुमार ठाकुर प्रसाद राही , बुद्धशरण हंस,
जयप्रकाश कर्दम, सुशीला टाकभौरे, रजत रानी ‘मीनू’ आदि सभी दलित कहानीकारों ने
सवर्ण समाज का दलित जातियों की ओर देखने जातीयवादी रवैया , जातीय अहंकार की
मानसिकता , जाति के आधार पर किये जा रहे अन्याय, अत्याचार तथा दलित जीवन की यातना
, पीड़ा, आक्रोश , प्रतिरोध , संघर्ष को अभिव्यक्त किया है । साथ ही अम्बेडकरवादी विचारधारा के प्रेरणा एवं प्रभाव के
परिणामस्वरूप दलित समाज में आयी चेतना और संघर्षशीलता इन कहानियों का मूल आधार है ।
रजत रानी ‘मीनू’ द्वारा लिखित और 2012
में प्रकाशित ‘हम कौन हैं?’ कहानी संग्रह में आंबेडकरवादी विचारधारा
की सशक्त अभिव्यक्ति है। इस संग्रह में कुल बारह कहानियाँ हैं जो भारत की सभी विभेदों की
जड़ बनी हुई हमारी जातिव्यवस्था, स्त्री-शोषण तथा जातिय अहंकार की भावना को
अभिव्यक्त करती है। साथ ही जातीव्यवस्था द्वारा शोषित-पीड़ित निम्न जातियों को आत्मालोचन
के लिए प्रेरित करने वाली कहानियाँ हैं। वर्तमान समय में, जातिव्यवस्था तथा जातिगत
ऊँच-नीचता ने भी अपना स्वरुप बदल लिया है। जातिगत ऊँच-नीचता तथा शोषण के नए आयामों
का भी यथार्थ चित्रण रजत रानी ‘मीनू’ जी की कहानियाँ करती हैं।
कहानी संग्रह की पहली कहानी ‘हम कौन हैं?’ में इस
इक्कीसवीं शती में भी भारतीय समाज की मानसिकता में किस तरह गहराई तक पैठी हुई ‘जाति’ ही है, इसका अत्यंत मार्मिक चित्रण किया
है। कहानी में धनेश्वर और उमा अपनी बेटी अज्जू (अजातिका) को पब्लिक स्कूल में ढेर सारा शुल्क देकर दाखिल
करते हैं। देश की वास्तविकता यह भी है कि हमारे ‘सरनेम’ जातिसूचक है। सरनेम सुनते
या पढ़ते ही हमें सामने वाले व्यक्ति की जाति का पता चलता है। इस कारण आंबेडकरवादी
विचारधारा से प्रभावित धनेश्वर और उमा
अपनी बेटी के नाम के सामने कोई ‘सरनेम’ नहीं लगाते। स्कूल के पहले ही दिन जब उमा
अपनी बेटी को पूछती है कि स्कूल कैसा लगा?, मैडम कैसी लगी? तब बेटी अत्यंत उत्साह
से स्कूल के संबंध में जानकारी बताती है। परंतु वह साथ में माँ से यह भी पूछती है
कि, मैडम ने उसका पूरा नाम पूछा, ‘सरनेम’ पूछा। उमा बेटी को नाम बताना टालती रहती
है। सरनेम पूछना जाती पूछने का मॉडर्न तरीका है। उमा के मन में इस प्रवृत्ति को लेकर कई
प्रश्न उठते हैं। वह अपने आप से सवाल करती हैं- “जब चंदौली से दिल्ली आई थी तो
लोगों को कहते सुना था कि अब जाती खत्म हो गई है। बड़े शहरों में तो बिल्कुल ही
कोई जात-पाँत नहीं पूछता। क्या इसी तरह शहरों में जाति समाप्त हो गई है? क्या यह
सच है कि पढ़े-लिखों में जाति नहीं होती, या वे जाति जैसे संकीर्ण शब्दों को नहीं
मानते? पर स्कूलों में इन अबोध बच्चों से सरनेम पूछकर क्या किया जा रहा है? अब तक
इस तरह के प्रश्न अड़ोस-पड़ोस में पूछ कर सरनेम के बहाने जाति का पता लगाया जाता
था, पर बच्चों से पहले ही दिन.... वह भी पब्लिक स्कूलों में भी...। आखिर जाति
शिक्षित और अशिक्षित सभी की जिज्ञासा का विषय क्यों है ?”2 इस तरह
आज के समय के घिनौने सच को सामने पाकर उमा का मन अत्याधिक चिंतित और विचलित होता
है ।
जब कोई
जानबूझ कर अपना सरनेम नहीं बताता तो उसको लेकर कई सारी गलत बातें फैलाई जाती है।
बार-बार सरनेम पूछा जाता है। अज्जू के साथ भी यही होता है। उसे भी स्कूल में मैडम द्वारा
बार-बार सरनेम पूछा जाता है। उसे जब स्कूल में यह पता चलता है कि जो लोग नीची जाति
के होते हैं वे ही सरनेम नहीं लगाते या छिपाते । इससे अज्जू के मन में अपना सरनेम
जानने की इच्छा और अधिक बढती है । इससे वह माँ से पुनः पुनः सरनेम पूछती है और एक
दिन यह भी पूछती है कि ‘मम्मी बताओं न क्या होती है नीची जाति? हम कौन है?’3 इस प्रकार भारतीय समाज में जाति की वास्तविकता
इतनी भयावह रूप तक पहुँच चुकी है कि देश के मासूम बच्चे भी इससे अछूते नहीं रह
सकते या रहने नहीं दिए जा रहे हैं ।
‘फरमान’
कहानी के माध्यम से रजत रानी ‘मीनू’ जी ने जाति व्यवस्था द्वारा शोषित कर्मवीर
जैसे लाखों निम्न जाति के मनुष्य का दुख-दर्द अभिव्यक्त किया है। कर्मवीर के पिता
उसका दाखिला स्कूल में कराते है परन्तु मास्टर के जातिवादी रवैये से उसका स्कूल
जाना बंद हो जाता है । एक दिन मास्टर क्रोधित होकर कर्मवीर से जब यह कहता है कि “तेरे बस की नांय
है पढ़नौ-लिखनौ। अपने बाप से कहिए कल से पशु चुगाने तुझे अपने साथ ले जाए करे।
वैसे तुझे पशु ही तो चुगाने है पढ़-लिखकर और का करेगो?”4 तो कर्मवीर का स्कूल छूट
जाता है और वह भी अपने पिता की तरह पशु चराने का काम करने लगता है । कर्मवीर
अपने गाँव के चौधरी रामौतार सिंह के जिंदगी भर पशु चराने का काम पूरी ईमानदारी और
निष्ठा से करता है परंतु एक दिन उससे एक भैंस खो जाती है। तो भैसें
चुराने का इल्जाम कर्मवीर पर ही लगाया जाता है। कर्मवीर के पिता और उसकी इमानदारी
एक पल में भूलकर चौधरी उसे चोर साबित करता है। वह पंचायत बुलाता है। पंचायत उसे सजा-ए-मौत
का फरमान जारी करती है। इससे पहले सारे गाँव के सामने उसके परिवार, घरवाली तथा उसे
अपमानित किया जाता है और अंत में एक दिन उसकी
लाश खेत में मिलती है। उसकी कनपटी और छाती में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी जाती
है। जिंदगी भर का श्रम का शोषण और एक गलती के लिए निर्घृण हत्या यह भारतीय सवर्ण
समाज द्वारा निम्न जाति पर किए गए अत्याचार की परिसीमा है ।
जातिगत ऊँच-नीचता
की भावना जिस तरह से सवर्ण वर्ग से निम्न, पिछड़ी जातियों में संक्रमित हुई है उसी
तरह स्त्री-पुरुषगत ऊँच-नीचता भी सवर्ण समाज की ही देन है। सवर्ण, उच्च जातियां जिस
प्रकार पितृसत्ताक व्यवस्था का पालन करते हुए, स्त्री को अपने पैरों की जूती मानते
हुए उन्हें दबा कर रखती हैं, उसी प्रकार निम्न जातियों में भी लड़कियों के साथ
पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता है। डॉ. आंबेडकर के विचार, प्रेरणा एवं कार्य के
परिणाम स्वरुप उसकी मात्रा भले ही कम है परंतु सच यही है कि उसके साथ हीनतापूर्ण
व्यवहार किया जाता है। इसी कारण पुत्र को अपने घर का चिराग मानने वाला ‘सुनीता’
कहानी की सुनीता का पिता छेदालाल सुनीता की स्कूल-परीक्षा की अपेक्षा अपने बेटे-लल्ला
को संभालना महत्वपूर्ण मानता है- “सुनीता, कान खोल कर सुन! हमें तुम्हें कलटटर-वलटटर
तो बनाना है नहीं, और न ही तू बन पाएगी। फिर तेरी पढ़ाई लल्ला से बढ़कर तो नहीं है,
वैसे भी तू पराए घर जाएगी। तो चिट्ठी-पत्री लायक थोड़ी सी पढ जा। वंश तो लल्ला ही
चलाएगा।”5 छेदालाल का अपनी बेटी तथा स्त्रियों के प्रति यह प्रतिगामी
दृष्टिकोण भारतीय जातिव्यवस्था तथा पितृसत्ताक व्यवस्था द्वारा बनाया गया है।
लेकिन फिर भी सुनीता की जीद और लगन से वह आगे पढने लगती है। पिता भी परंपरा को
तोड़ते हुए बेटी की जीद के आगे उसे पढ़ाते हैं। परंतु गाँव के जातिवादी ऊँची जाति
के लोगों से यह सहन नहीं होता। वह सुनीता पर बुरी नजर डालते हुए व्यंग्य करते हैं।
गाँव के ठाकुर शेर सिंह का बेटा बहादुर सिंह कहता है “चमारी पढ़-लिखकर अफसर बनेगी।
गाँव में बड़ी जाति के लोग तो लड़कियों को पढ़ाना जरूरी नहीं समझते पर छेदा चमार
को अपनी औकात का शायद पता नहीं है।”6 बड़ी जातवाले गाँववालों के दबाव में छेदालाल
बेटी की शादी करवाना चाहता था पर बेटी के जीद के आगे वह हार जाता है। बेटी पढने
लगती है तो गाँव का मुखिया सज्जन सिंह जो सुनीता को किशोरावस्था से घूरता था कहता
है “ए छेदा, तू इस गाँव की रीति-रिवाज जानता है? हमारे गाँव में अछूत छोकरी को
ज्यादा पढ़ानों-लिखानों ठीक नाहे है। इसलिए हम तोय समझात है कि तू जल्द अपनी छोकरी
के हाथ पीले कर दे।”7 कहानी के अंत में सुनीता उच्च शिक्षा
हासिल कर सांसद तक बन जाती है। इस प्रकार रजत रानी जी ने हमारी विषमतावादी
जातिवादी व्यवस्था और पितृसत्ताक व्यवस्था की घिनौनी परंपरा और आंबेडकरवादी विचारधारा की जीत दिखायी ।
रजत रानी ‘मीनू’ जी की ‘वे दिन’, ‘धोखा’ कहानियाँ
सदियों से स्त्री शोषण, अन्याय और अत्याचार की दास्तान की मार्मिक अभिव्यक्ति है।
मीनू जी की ‘मिट्ठू की विरासत’ कहानी सदियों के दलित अश्पृश्यता, शोषण और अपमान से
भरी जिंदगी की यथार्थ दास्तान है। मिट्ठू लेखिका के पिताजी जिस सरकारी बिजली घर
संस्थान में कार्यरत थे वहां संस्थान और
कॉलोनी की सफाई का काम करता था। “उस छोटी सी कॉलोनी में पंडित, ठाकुर, तेली,
कायस्थ, मुस्लमान और दलित आदि सभी जातियों के लोग रहते थे। सभी का व्यवहार मिट्ठू
के प्रति लगभग समान था और मिट्ठू का काम भी सभी के प्रति समान था।”8
मिट्ठू भारतीय जातिव्यवस्था द्वारा जन्मा दलित समाज को प्राप्त अपनी भंगी जाति का संडास-गंदगी
साफ करने का काम करता था। इसलिए सभी ऊँची जाति के लोग उसकी सेवा तो प्राप्त करते
थे परंतु उसका स्पर्श भी अपवित्र मानते थे। उसे चाय आदि देने के लिए टूटा कप घर
में रहता। रोटियां दूर से उसकी हथेलियों में फेंकी जाती। वह हाथ भी ऐसे फैलाता
जैसे उसकी हाथों में अदृश्य हथकड़ियां हो। वह सरकारी सफाई कर्मचारी होकर भी स्वयं
नल से पानी नहीं ले सकता था। पानी के लिए उसे किसी ऊँची जाति के व्यक्ति या बच्चे
का इंतजार करना पड़ता। एक दिन उसने नल से पानी लेने का साहस किया तो शिवदत्त शर्मा
ने दहाड़ते हुए कहा “मिट्ठू! तू क्या कर रहा था? बुढा हो गया। समाज के नियम-कायदे तुझे
फिर से सिखाने पड़ेंगे क्या? सत्यानाश हो तेरा।”9 कॉलोनी के सभी
ऊँची जाति के पढ़े लिखे लोगों ने उसे धमकाया परंतु लेखिका के पिता जो कि दलित समाज
के हैं उन्होंने मिट्ठू का पक्ष लेते हुए मिट्ठू से कहा “मिट्ठू! तुम आज से अपने
आप नल चलाकर हाथ मुंह धोओ और पानी पियो। मैं देखता हूँ कौन रोकता है तुम्हें ?आज
से डरने की कोई बात नहीं है ।अब की बार कोई कुछ कहे तो मुझसे कहना।”10 यह
दलित समाज को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा प्राप्त ऊर्जा है जो अन्याय, अत्याचार
और शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देती हैं। इससे मिट्ठू के आत्मविश्वास में भी
वृद्धि हुई। परंतु शिक्षा और संघर्ष के अभाव में आज भी दलित समाज जातिव्यवस्था
द्वारा दिए गए पुश्तैनी काम करने के लिए विवश है। इसी कारण जब एक दिन मिट्ठू की
मृत्यु होती है तो उसका दस वर्षीय पोता
अपने दादा का पल्ला, झाडू , पंजा उठाकर सफाई का काम करने की विरासत संभालता है। इस
प्रकार जातिगत ऊँच-नीचता और जन्म के आधार पर काम निर्धारित करने से समाज के दलित
समाज सदियों से अन्याय-अत्याचार और शोषण के चक्की में पीसता आ रहा है, इस सामाजिक
वास्तविकता को ही यह कहानी प्रस्तुत करती है ।
‘वह एक रात’
कहानी में मीनू जी ने आज के इस आधुनिक युग में भी देश की राजधानी में रहनेवाले
दलितो का जीवन किस प्रकार अपमान, उपेक्षा और आतंक से भरा हुआ है इसका यथार्थ वर्णन
किया है। सुरेश जो दिल्ली में क्लर्क है अपनी पत्नी उषा, बहन गुलाबो और बेटी स्वीटी
के साथ गाँव के लिए निकलता है। बहन को बस सहन होने के कारण वह रेल से निकलता है
परंतु उसकी सुबह की गाड़ी छूट जाती है। वह दोपहर की गाड़ी से निकलता है इस कारण वह
समय पर गाँव नहीं पहुंच पाता। जैसे-जैसे देर होती हैं उसका दिल घबराता है वह बार
बार घड़ी देखता है। अतरौली पहुंचने पर उसे पता चलता है कि कर्मपुरा जाने वाली
अंतिम बस निकल चुकी है। अब गाँव पहुंचने के लिए अन्य कोई चारा न होने और चोर के डर
से वह अतरौली की धर्मशाला में रहने का
फैसला करता है। वह अपनी जाति छुपाकर धर्मशाला में रहता है परंतु जाति का पता चल
जाएगा तो क्या होगा? इस आशंका से उसे नींद नहीं आती। आंख लगती भी है तो पुजारी उसे
धर्मशाला से निकाल रहा है इस तरह का सपना देखकर वह चिल्लाते हुए नींद से जग जाता
है। रात में बाहर निकलता है तो उसके गाँव का एक आदमी उसे पहचान लेता है। वह पुजारी
को बताता है कि ‘यह प्रधान सुखीराम चौधरी का रिश्तेदार नहीं है, सेवकराम चमारा को
नाती सुरेश चमार है।’ इस पर पुजारी क्रोधित होकर कहता है “घोर अनर्थ हो गया,
सत्यानाश हो या कपटी कौ! तेरी हिम्मत कैसे भई सेठ धर्मदास की धर्मशाला में घुसिवे
कि। मानो कि वे दरियादिल है, बेशक उन्होंने धर्मशाला धर्मार्थ बनवाई है, पर या कौ
मतलब गे तौ नाय हो तुइ कि जो कोई भंगी-चमार मुंह उठाए चले आवे, हम सब की सेवा करिबे
कूं बैठे हैं। तुम्हारे बाप के नौकर लगे हैं का? गे धर्मशाला है! पवित्र हिंदू
मंदिर वारी धर्मशाला।”11 पुजारी अपने आदमियों को बुलाता है।
सुरेश अपना परिवार लेकर आधी रात को धर्मशाला से बाहर निकलता है। इस प्रकार
मनुष्यता को नकारनेवाली जातिव्यवस्था की वास्तविकता को मीनू जी ने प्रस्तुत कहानी
में अभिव्यक्ति दी हैं।
आज ऊँची जाति-सवर्ण जाति के लोग बड़े गर्व से कहते
मिलते हैं कि अब जातिगत ऊँच-नीचता नहीं रही। बदले हुए परिवेश के साथ जातिगत ऊंच-नीच
का स्वरूप भी बदल गया है लेकिन सच यह है कि बाहरी तौर पर भले ही जातिगत भेदभाव
खत्म हो गया हो परंतु सच्चाई यह है कि आज भी सवर्ण समाज के लोगों में जाति वैसी की
वैसी बसी हुई है। इसी सच्चाई से पर्दा
उठाने वाली रजत रानी ‘मीनू’ की कहानी है ‘भाईचारा’ । भाईचारा अपार्टमेंट में रहने
वाली गीतांजलि को जब यह पता चलता है कि उसके घर में मिसिज स्वदेश मिश्रा, मिसिज नितिन
दुबे के साथ चमार जाति की लेखक उदयवीर प्रसाद की पत्नी नीता घर पर आकर चाय-नाश्ता
लेकर गई है तो वह अत्यंत बेचैन हो जाती है। वह अन्य सहेलियों पर ही बिगड़ती है।
उसे ऐसा लगता है सोफे पर नीता के रूप में उसके गाँव में सफाई का काम करने वाली
चमार और भंगी जाति की औरतें छन्नों और तारावती बैठी हैं। वह सोफा चेयर से गद्दी
कुशन हटा देती हैं। वह क्रोधित तथा बेचैन होकर अपने पति दीपांशु को काम से बुला
लेती है। वह अपने पति से कहती हैं “आज मिसिज मिश्रा और मिसिज नितिन दुबे के साथ उस
चमार लेखक की बीवी घर आकर चाय नाश्ता करके हमें भ्रष्ट कर गयी। मुझे उसकी जाति के
बारे में पता नहीं था। कम से कम उसे तो चाय पीते लाज आनी चाहिए थी। हमारी बिरादरी
की सारी बातें सुनती रही।”12 उदयवीर प्रसाद ‘भाईचारा अपार्टमेंट’ में
यह सोचकर आए थे यहां लेखक-पत्रकार परिचित हैं तो परिवार जैसा माहौल होगा परंतु
यहां आकर उन्हें जातिगत ऊँच-नीचता का घिनौना रूप अनुभव करना पड़ता है। एक दिन अपार्टमेंट
में जब लिट्टी की पार्टी का आयोजन किया जाता है तो उदयवीर प्रसाद के परिवार को
उससे दूर रखा जाता है। बड़ी चतुराई और षड्यंत्र से चमार होने के कारण दीपांशु और
अन्य सवर्ण जाति के लोग नीता और उदयवीर प्रसाद के परिवार को अछूत होने का अनुभव कराते
हैं।
रजत रानी
‘मीनू’ जी की ‘रिश्ता’ कहानी जहाँ एक ओर पारिवारिक संघर्ष को अभिव्यक्त करती है
वही दूसरी ओर निम्न जातियों में भी जातिगत ऊँच-नीचता के गहराई तक फैले हुए जहर की
मार्मिक अभिव्यक्ति है । कहानी में नीता और विनीता सौतेली बहनें हैं । उनके पिता
विनीता की शादी में नीता को केवल इसलिए नहीं आमंत्रित नहीं करते कि उसने अपनी
मर्जी से चमार जाति के लडके से शादी की है और वे जाटव जाति के हैं । दोनों भी
जातियां अनुसूचित जाति में ही सम्मिलित हैं । केवल आर्थिक विषमता के कारण एक ही
जाती के भिन्न रूप हैं । नीता अपने पति ॠषीकान्त से इस सम्बन्ध में कहती है- “वही
तो मैं सोच रही हूँ कि हमारी शादी तो अंतरधर्मीय और अंतरजातीय भी नहीं थी । पहली
पसंद भी मम्मी-पापा की ही थी । बस्स वर्ग का अंतर है । हम भूमिहीन वर्ग के हैं और
वे कृषि संपन्न नौकरीपेशा हैं । इसी सुपीरियरिटी भाव के कारण चमार से जाटव बन गए
हैं । ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे मेरे परिवार की नाक नीची हुई हो।”13
संग्रह की ‘महामहिम का भाषण’ कहानी में उच्चस्तरीय
शोध संस्थान जैसी संस्थानों में कार्यरत उच्चाधिकारियों के मन में बसी जातीय
अहंकार की भावना को दर्शाती है तो ‘गिरोह’ कहानी निम्न जातियों को संविधान द्वारा
प्राप्त आरक्षण की संवर्ण समाज द्वारा किस तरह धज्जियाँ उड़ाई जा रही है; इसका
यथार्थ चित्र अंकित करती है । स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद और आरक्षण के बावजूद
भी निम्न जातियों की उन्नति न होने का कारण समाज के इस ऊँचे तबके द्वारा आरक्षण
नीति के साथ की गई छेड़छाड़ भी एक बड़ा कारण है । किसी भी तरह से निम्न जातियों को
विकसित होने से रोकना यह भारत की जातिवादी मानसिकता का ही सबूत है । मीनू जी की
प्रस्तुत कहानी इसी सच्चाई से पर्दा उठाती है ।
निष्कर्षत: कह सकते है कि रजत रानी मीनू जी
कहानियाँ भारतीय समाज में सभी विभेदों का कारन बनी जातिव्यवस्था की पोल खोलती हैं
। वर्तमान समाज में जातियों की समाप्त
होने की बात संवर्ण समाज द्वारा बड़े जोरों-शोरों से की जाती है मीनू जी ने
अपनी कहानियों में इस झूठ को भी तार-तार किया है । ग्रामीण जीवन में सदियों से
पनपती जातिवादी मानसिकता तथा
अन्याय-अत्याचार साथ-साथ लेखिका ने शहर में रहनेवाले सभ्य समाज की जातीय अहंकार और
घिनौनी दृष्टि को भी बेपर्दा किया है । लेखिका संवर्ण समाज के अनुकरण से निम्न
जातियों में गहराई तक फैली और अत्यंत भयावह रूप ले चुकी जातिवादी मानसिकता को
अंकित करने से भी नहीं चुकी । इसप्रकार रजत रानी मीनू की कहानियाँ वर्तमान समाज
में बरक़रार जातिवादी मानसिकता और जातिवाद के बदले हुए रूप का यथार्थ अंकित कराती
हैं ।
संदर्भ:
1.
दलित
कहानी संचयन, रमणिका गुप्ता , पृ. 14
2.
हम कौन
हैं ?, रजत रानी ‘मीनू’, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, पृ. 18
3.
वही,
पृ. 20
4.
वही,
पृ. 21
5.
वही,
पृ. 29
6.
वही,
पृ. 30
7.
वही,
पृ. 32
8.
वही,
पृ. 55
9.
वही,
पृ. 57
10.
वही,
पृ. 57
11.
वही,
पृ. 74
12.
वही,
पृ. 87
13.
वही,
पृ. 101
------------------
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