लघुकथा
लघुकथा : 1
शर्ट
देविदास का छोटा सा
चार बाय आठ सलून सेंटर है । शहर के अच्छे इलाके में बहुत ही छोटी सी दुकान । इस
इलाके के ज्यादातर लोग एसी दुकान में बाल कटवाते थे । परंतु उस नगर के बुढे
बुजुर्ग और इक्का दुक्का अधेड उम्र के पुरुषों के बल पर उसकी दुकान चलती है। दुकान में उसके अलावा दो लोग मुश्किल से खडे हो पाते है । ग्राहक को कुर्सी पर बिठाने के लिए वह कुर्सी को दरवाजे की ओर घुमाता और फिर आईने की ओर घुमाते हुए कहता,'कहिए ' ।
पचास पचपन साल का देविदास नील से भिगोये गये सफेद कपडे पहनता । हमेशा सिगारेट पीने से उसके ओंठ काले हो गये थे । जैसे ही खाली समय मिलता सामने पान के ठेले पर पहुँचकर दो कश मारता और दुकान के सामने इधर उधर देखते ग्राहक को देखकर मुस्कुराते हुए उसकी ओर दौडता । जितनी तेजी से वह अपनी कैची चलाता उतनी ही उसकी जुबान भी चलाती ।उसका एक बेटा मुंबई पुलिस है तो दूसरा भर्ती की तैयारी करता है । हर कोई अपना तकदीर लेकर आता है, जिंदगी को
सच के साथ जीना चाहिए , अपने नसीब में जो है उसे कोई नहीं छीन सकता , मेहनत करनी
चाहिए इतना भर उसकी जिंदगी का दर्शन है ।
उस दिन मैं बाल
कटवाने के लिए गया । हमेशा की तरह बडी
मुश्किल कुर्सी पर बैठा । कैची चलने लगी । बात बढने लगी । और देविदास ने अपने बचपन
का किस्सा सुनाया । उसने कहा कि वह बचपन में बहुत शरारती था । स्कूल से भागकर घंटों
वे अलग अलग देहाती खेल खेलते रहते । उसके दोस्तों में सभी जाति के बच्चे थे ।
उनमें शेखर नाम का जयभिम समाज का भी लडका था ।
एक दिन देविदास
अपनी नई शर्ट पहनकर स्कूल आया था । स्कूल से बीच में ही भागकर वे सडक के किनारे
खेलने लगे । नई शर्ट मैली ना हो और मां की डांट से बचने के लिए देविदास ने अपनी
शर्ट उतारकर सडक के किनारे रख दी और मिट्ठी में खेलने लगे । काफी देर खेलने के बाद
और सूरज को डूबते हुए देखकर बस्ता उठाकर वे घर लौट गये । बस्ते पर रखी शर्ट हवा से दूर चली गयी । खेल- खेल में वह शर्ट को भूल भी गया था । घर आते ही मां ने खाना परोस दिया । वह खाना खाकर अपनी बनियन से हाथ पोंछते हुए उठ ही रहा था कि मां ने उसके इर्द-गिर्द नजर घुमाकर देखते हुए पूछा , ' तुम्हारी नई शर्ट कहाँ है? ' देविदास ने कुछ याद करते हुए कहा '
घर में ही कहीं होगी ।' वह यह भूल
चुका था कि उसने शर्ट कहा रख दी थी । वह मन ही मन सोच रहा था कि शर्ट कहाँ रह गयी होगी । बहुत कोशिश करने पर भी वह कुछ याद न कर पाया । मां की डांट और मार के डर से उसने शर्ट खो जाने की बात छिपाई और चुपचाप बैठ गया
। मां बेटे की पाई पाई जमा कर खरीदी नई
शर्ट के खो जाने से बहुत दुखी हो गयी थी। जिसने उसके बच्चे की शर्ट ली थी उसे भला
बुरा कहने लगी । दो तीन दिन बाद देविदास की वह शर्ट मां ने शेखर ने पहनी हुई देखी
। मां को लगा जरूर यह शर्ट देविदास ने
शेखर को दी होगी । मां ने देविदास से फिर वही सवाल किया । देविदास ने माँ की ओर बिना देखे ही कह दिया 'पता नहीं । ' माँ ने उसे टटोलते हुए फिर कहा - 'जरूर तूने शेखर को दी है शर्ट
।' देविदास माँ धीरे -धीरे बढते आवाज को देखकर धीमी आवाज में केवल 'नहीं माँ' इतना भर कह पाया। माँ का गुस्सा और बढने लगा । उसने देविदास का हाथ पकडकर अपने पास खींच लिया और गली से गुजरते शेखर की ओर इशारा करते हुए कहा, 'फिर उसने क्या पहना
है ।' माँ ने शेखर की ओर बढते हुए गुस्से भरी उँची आवाज में कहा, ' ऐ, शेखर , रूक वही ।
' देविदास ने माँ का हाथ अपने दोनों हाथों से पकडते हुए रूआँसी आवाज में बार- बार कहा, माँ वह उसकी होगी, उसकी होगी ...।' मां की आँखे अब अंगार की तरह लाल हो रही थी । गुस्से से काँपते हुए कहा-
'बिलकुल तुम्हारे शर्ट जैसी ? वह
तुम्हारा ही शर्ट है ।' उसकी ओर से तेजी से शेखर की ओर देखते हुए मां ने शेखर से
पूछा- 'ऐ, शेखर यह तुमने किसकी शर्ट पहनी है ? '
शेखर ने माँ का वह रूप देखकर डरते हुए जवाब दिया , 'मेरी है।'
मां- 'कहां
से खरीदी ?'
शेखर ने हकलाते हुए कहा, 'म्..म्..मुझे मिल गयी है।'
माँ ने देविदास की ओर घूरते हुए पूछा, 'कहाँ मिली ।'
शेखर जो भाग जाना चाहता था उसने तुरंत कहा, ' मुझे सडक के
किनारे मिली, मुझे अच्छी लगी तो मैंने पहन ली ।'
मां की आँखें आग उगल रही थी । उसने शेखर के कहे शब्दों को दोहराते हुए उसे मानो चिढा रही हो कहा , मुझे अच्छी लगी..... उतार वह शर्ट ,मेरे बेटे की है ।'
मां का तमतमाया
चेहरा देखकर डरते हुए शेखर ने उतार दी और रूआंसा सा वहां से चलता बना । क्रोध में फनफनाती हुई मां देविदास को खींचती
हुई गली से आंगन में लाई ।
शर्ट आंगन में एक कोने में फेंक दी और काफी देर तक बडबडाती रही । देविदास समझ नहीं पा रहा था कि मां इतनी गुस्से में क्यों है ? देविदास
जो बहुत देर तक दरवाजे
की सीढी पर बैठा हुआ था
धीरे से उठकर अपनी फेंकी
हुई शर्ट के पास चला गया और वह शर्ट पहनने ही वाला था कि मां ने चिल्लाते हुए कहा
- 'हाथ मत लगा उसे , फेंक दे ।अब वह पहनने लायक नहीं रही । उसे उन लोगों ने छू लिया है । ' मां की ये बातें देविदास उस समय समझ नहीं पाया पर
अब समझ गया हूं । जैसे
कुछ याद आते हुए देविदास ने कैची को सामने टेबल पर रखते हुए झट् से कहा, 'लेकिन सर , अब तो मेरे और मेरे बेटों के कई सारे दोस्त
जयभिमवाले ही है ।' और मुस्कुराते
हुए मेरे बालों से बडे सलीके से हाथ फेरकर अपने खास अंदाज में ताली बजाते हुए कहा, 'मेरी
बूढी तब से अभी भी वैसी ही है । बिलकुल नहीं बदली । उसकी वजह से घर में हमें भी संभलकर रहना पडता है , अब ठीक है न् सर ।'
------------ डाँ. संजय रणखांबे
सहायक प्राध्यापक ,
हिंदी विभाग ,
डाँ. अण्णासाहेब जी. डी.
बेंडाले
महिला महाविद्यालय , जलगांव- 425001
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